Tuesday, December 9, 2014
Saturday, October 18, 2014
'माँ जल्दी घर आओ न'
जब तुम मुस्कुराती हो
और चमकती है तुम्हारी जुगनू सी आंखे
मै बन जाती हूँ दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत
निकल आते है पंख मेरे कंधो पर
तुम्हे बैठा कर अपनी पीठ पर
मै घुमा लाती हूँ सात समुन्दर पार
मेरे घर पहुचते ही दौड़ पड़ती हो तुम मेरी ओर
और मै कहती हूँ रुको बेटी मुझे मुंह तो धोने दो
और तुम चल पड़ती हो मन्त्र मुग्ध सी मेरे पीछे
ऑफिस में जब रुकना पड़ता है
देर तक किसी मीटिंग के कारण
पांच बजे के बाद मुझे दीखता है
सिर्फ घर, तुम और तुम्हारे पापा
सुनाई देती है सिर्फ एक आवाज़
'माँ जल्दी घर आओ न'
Tuesday, September 30, 2014
Thursday, September 18, 2014
ज़िंदगी के साथ रिश्ता यूँ निभाना चाहिए
करके दिल का बोझ हल्का मुस्कुराना चाहिए
रूठ जाने पर निकल जाना अकेले दूर तक
रात गहराने से पहले लौट आना चाहिए
गैर मुमकिन है की हर झोकें में हो ठंडी हवा
खुश्क से पत्तों के संग कुछ धूल आना चाहिए
हर किसी के साथ हैं दुश्वारियों के सिलसिले
हल न हो पाएं जो मसले, भूल जाना चाहिए
- रंजना डीन
Wednesday, September 17, 2014
Wednesday, August 27, 2014
Friday, July 25, 2014
सुखमनी
इक्कीस बरस की थी सुखमनी
जब आई थी ब्याह के
तब पता न था उसे
की जीतू के स्वभाव का
शादी के कुछ दिन बाद ही से
डराता धमकाता रहा वो
और वो डरती रही
निभाती रही मान इसे अपनी किस्मत
शादी के दो साल बाद
जब वो हुई पेट से
लड़ायी बदस्तूर जारी रही
चलती रही मारपीट भी
जीतू चला जाता काम पर
सुबकती रहती घर पर वो
बच्चा हुआ पर दिमाग से कमज़ोर
जीतू कोसता रहता उसे
और वो कोसती रहती खुद को
खुद को व्यस्त रखने के लिए
उसने शुरू कर दी सिलाई घर से
उसकी भोलापन और मेहनत काम आई
वो करने लगी अच्छी कमाई
जीतू ने जब ये देखा
तो अपनी अकल लगायी
बोला इतना कुछ अकेले कैसे सम्भालोगी
तुम हो सीधी ज़माना है खराब
मैं सम्भालूंगा पैसों का हिसाब किताब
सुखमनी मान गयी उसकी बात
अब घर पर होने लगी दावतें
पीने लगा जीतू शराब
कम हो गए सुखमनी के ग्राहक
और बिगड़ गया घर का हिसाब किताब
और जीतू ने कर दिया अब नौकरी करने से इंकार
सुखमनी में तब भी न मानी हार
करने लगी नौकरी दर्ज़ी की दुकान पर
वो सुबह जल्दी उठ जाती
घर का सारा काम निबटाती, खाना बनाती
और दिनभर खटती दुकान पर
शाम को घर पर कदम रखते ही
शुरू हो जाती फरमाइशें
सबसे पहले जीतू मांगता पैसे शराब के
और बता कर जाता की खाने में क्या बनाना है
शराब में धुत्त होकर आता
उसे चार गालियाँ सुनाता
यूँ ही चल रही है सुखमनी की ज़िंदगी
हमें सिर्फ सुनना चाहिए चटखारे लेकर
या कुछ करना भी चाहिए???
- रंजना डीन
Wednesday, April 23, 2014
घर के आँगन के पीछे
एक बड़ा सा पेड़
चाँद झांकता पीछे से
जैसे उजली भेड़
फर्श पे बिखरे पानी पर
कभी उतर आता
कभी बादलों से करता
प्यार भरी मुठभेड़
मुझको अक्सर दिखती है
आसमान तक मेड़
एक नन्हा सा गाँव वहाँ
परियों का है ढेर
पँख चुरा कर भागी हूँ
बड़ी मशक्कत से
कितनी बड़ी बहादुर मैं
कितनी बड़ी दिलेर ....... ;)...:)
- रंजना डीन
Sunday, March 16, 2014
Monday, February 17, 2014
ज़िंदा हूँ मैं
तुम्हे पता है मैं हूँ परिंदा
कुछ मायूस मगर ज़िंदा
और मुझे पता है तुम्हे पसंद नहीं मेरी उड़ान
इसलिए समेट लिए हैं मैंने अपने पँख
और फुदकती रहती हूँ घर के आँगन में
देखती रहती हूँ आसमान के परिंदों कि उड़ान
उनका आना - उनका जाना
उनका दरख्तों पर बैठ पंख फड़फड़ाना, चहचहाना
कभी कभी हो जाती हूँ उदास
ज़िंदगी नहीं आती रास
फिर रोपने लगती हूँ
घर के आँगन में कुछ खुशियों के पौधे
कि उनकी देखभाल में शायद
कुछ पल को हट जाये नज़र आसमान से
भूल जाऊँ अपने परिंदे होने के एहसास को
पर आसमान से लहराकर गिरता है
जब कोई पंख मेरी हथेली पर
फिर से याद आ जाता है
ज़िंदा हूँ मैं
परिंदा हूँ मैं
- रंजना डीन
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