Monday, December 9, 2013

मुझे पता है टूटे हुए पत्ते 
फिर से नहीं जुड़ेंगे अपनी टहनियों से 
लेकिन उनको इकट्ठा करके बनायीं गयी खाद 
दे जाती है मजबूती उसकी जड़ों को 
ठीक उसी तरह जैसे बुज़ुर्ग साथ हो या न हो 
मगर उनकी दुआएं
ज़िंदगी के हर कमज़ोर वक़्त में 
हाथ थाम कर खड़ी हो जाती हैं 
हमारा साथ देने के लिए 


Monday, December 2, 2013

सन्डे इज़ फन डे??

बड़े दिन बाद 
आज घर कि दोपहर देखी 
देखा किस समय धूप 
कौन सी दीवार पर पसरती है 
कबतक रहती है उसमे नरमी
और कब चुभने लगती है गर्मी 
निम्बू का अचार भी बनाया आज 
जीरे और काली मिर्च वाला 
कांच के मरतबान से झांकते 
रस में डूबे पीले निम्बू 
यूँ लग रहा है जैसे सारे स्माइली 
आकर जगह इकट्ठा हो गये हैं 
सन बाथ लेने के लिए 
दही मथी, मक्खन निकाला 
देसी घी भी बनाया 
और बनायीं राशन की फहरिस्त 
की कोने कोने कि सफाई 
रज़ाई को धूप दिखायी 
और पूरी कि स्पेशल खाने कि फरमाइश 
कौन कम्बख्त कहता है सन्डे इज़ फन डे 
सम टाइम्स इट्स मोर हैक्टिक देन मंडे 

लेकिन फिर भी लविंग इट....;)…:) 

- रंजना डीन

Friday, November 29, 2013

खुशियों कि खुशफहमी रखना
घर में गहमागहमी रखना
पूरा सच कड़वा होता है
थोड़ी सी गलत फहमी रखना
- रंजना डीन 

Thursday, October 3, 2013

घर 

संग-ए-मरमर फर्श पर है 
मखमली दीवारों दर 
है मकां ये खूबसूरत 
पर नहीं लगता ये घर 

न चहकते हैं परिंदे 
न यहाँ बच्चों का शोर 
छत से गुजरी जब पतंगे 
न किसी खींची डोर

न कभी आया कोई ख़त
न ठहाकों की फिज़ा
दर्द बोया था कभी
अब उसके साये की सज़ा

नीव हो बस प्यार की
और दिल में न हो कोई डर
छोटे छोटे लम्हे बुनकर
बनता है कोई भी घर

- रंजना डीन

Sunday, September 15, 2013

मै अकेली कब थी 
तुम गए तो तन्हाई आ गयी
चहकती रही मेरे साथ 
बतियाती रही रात भर 
कभी इस करवट लेट जाती
कभी उस करवट 
कभी जोर से कहकहे लगाती  
कभी आह भर कर चुप हो जाती 
कभी गुनगुनाती कोई पुराना सा गीत
कभी याद दिलाती पुरानी बातें 
की सर्दियों में माँ स्वेटर की जेब में 
ढेर सारी मूंगफली भर देती थी 
और हम उसे खाते हुए
निकल जाते थे दूर तक बतियाते हुए 
सुबह झुण्ड बनाकर साईकिल से 
मोर्निंग वाक पर जाना भी याद है 
वो नीरजा भी याद है 
जो मुझे जगाने आती थी 
और मेरी नींद खुलने के इंतज़ार में 
अक्सर वो भी मेरे साथ सोती रह जाती थी
मुझे याद है तरबूज काटने से पहले 
उसपर मै चेहरा बना दिया करती थी 
चाकू से कुरेद कर 
एक दिन पापा ने टोका था 
बेटा ऐसा मत किया करो 
लगता है किसी की बलि दे रही हो 
ऐसे ही न जाने कितने पल 
सुनते सुनाते रहे हम रात भर 
और लो सुबह हो गयी 
तनहाई भी उबासियाँ ले रही है 
और कह रही है 
यार रात कैसे कट गयी 
पता ही नहीं चला?

- रंजना डीन 

Tuesday, June 25, 2013

 रिसती दीवार 

सीलन से यूँ ही नहीं गिर जाती दीवारें 
बहुत दिनों तक खुद में ही
समेटती, सहेजती रहती है नमी को 
संभालती रहती हैं हर कमी को 
पर जब ये नमी उभर आती है 
बूँदें बन कर सीली हुई दीवारों पर 
फिसलती हैं लकीर बनकर किनारों पर 
तब हमदर्दी की धूप की गर्मी 
मीठे से लफ़्ज़ों की नरमी 
अगर सुखा ले गयी ये सीलन 
तो फिर जी उठता है सहने का जज्बा
वर्ना किसी दिन यूँ ही
घावों सी रिसती दीवार
दम तोड़कर ढह जाती है

- रंजना डीन

ख़ुशी हो साथ, या न हो
मगर गम ढून्ढ लेता है

मै कितना भी छुपुं
मेरी महक ये सूंघ लेता है

चला आता है चुपके से
रुला जाता है जी भर के

मेरे कंधे पे सर रखकर
ये घंटो ऊंघ लेता है

- रंजना डीन

Sunday, June 16, 2013

Happy Father's Day Dear Papa

पापा को याद करते हुए बचपन की एक याद शेयर कर रही हूँ आप सबसे...

बचपन में मैंने खेले खेल खिलौने ढेर
हाथी, बन्दर, भालू, मुर्गा, कछुआ और बटेर

पापा ने घुटनों पर अपने झुला बहुत झुलाया
कंधे पर बैठा कर मुझको सारा जहाँ घुमाया

थे पापा के पेट पर बहुत घनेरे बाल
जब भी देखू आता था जंगल का ख्याल

एक दिन पापा ऑफिस से थक कर जब घर आये
लेट गए वो बिस्तर पर थोड़ा सा सुस्ताये

बस क्या था मौका मिला करने को शैतानी
सैर करेंगे जंगल की आज जानवर ठानी

हाथी, बन्दर, भालू, कछुआ और पापा का पेट
सभी जानवर सजा दिए जरा किया न वेट

आख खुली तो पापा ने देखा और मुस्काए
बोले इतने जानवर जंगल से कब आये?

अब तो मैंने बना लिया इसे रोज़ का खेल
पापा मेरी कैदी थे मिल न पाती बेल

तंग आकर फिर पापा ने अपनी अकल लगायी
सजे जानवर पेट पर तो जोर से तोंद फुलाई

लुढ़क गए सब जानवर ऐसा लगा उछाल
पापा बोले जंगल में आया आज भूचाल

- रंजना डीन

Thursday, June 13, 2013


जिंदगी का पलंग

जिंदगी का पलंग
इतना है तंग
की लेते ही करवट
लुढ़क जाती हूँ

ठंडी ज़मीन
जब रास नहीं आती
तो खुद को समेट
कर सिमट जाती हूँ

देखती हूँ
पलंग के नीचे
तो कुछ खोयी हुई पुरानी चीज़ें
पड़ी पाती हूँ

मेरे जूड़े की स्टिक
कुछ रंग बिरंगी बिंदिया
कुछ टुडे मुड़े ख्वाब
बटोर लती हूँ

और फिर से
जिंदगी के पलंग पर लेट
कुछ गुनगुनाती हूँ
कुछ ख्वाब सजाती हूँ 

 - रंजना डीन

Friday, June 7, 2013














फिसल कर आसमां की गोद से 
जब भी गिरी हो तुम 
न जाने बांह मेरी खुद-ब -खुद 
क्यों फ़ैल जाती हैं 
ऐ नन्ही बूँद तू मुझको
मेरी बेटी सी लगती है 
ज़रा पलकें मै फेरूँ तो 
वो मुझसे रूठ जाती है 

- रंजना डीन 

Tuesday, April 30, 2013

हर हँसते चेहरे के पीछे 
टूटा सा एक दिल होता है 

जी लूँ कुछ पल साथ तुम्हारे 
सुन लूँ तेरे सारे सुख दुःख 
कह दूँ तुझसे मन की गाथा 
ऐ पल थम जा,थोड़ा सा रुक 

समझ न पाई क्या न भाया 
कब मैंने तुझको उकसाया 
कब कह दी कुछ कडवी बातें 
कब कुछ अनचाहा सा गाया 

कब सिरहाने आकर तेरे 
नींद तुम्हारी खारी कर दी?
कब आँखों को अश्क दिए 
और पलकें तेरी भारी कर दी?

इतने सारे प्रश्न छोड़कर 
ऐसे कैसे जा सकते हो?
कारण कोई भी हो मुझको 
खुल कर तुम बतला सकते हो 

मन पर बोझ उठा कर जीना 
थोडा  सा मुश्किल होता है 
हर हँसते चेहरे के पीछे 
टूटा सा एक दिल होता है 

- रंजना डीन 

Sunday, April 21, 2013































हर मर्द खड़ा शर्मिंदा है, हर औरत सहमी-सहमी-सी

हर और मचा है शोर और ख़बरों की गहमा गहमी सी 


कन्याओं की पूजा करके हम सभ्य सरीखे दीखते हैं


पर वहशीपन का चरम यहाँ, और दिखती है बेरहमी सी

Sunday, April 14, 2013












याद की सियाही 

याद की गहरी सियाही 
फिर टपक कर बह रही  है 
कागजों पर भूली बिसरी 
बात फिर से कह रही है 
चुभ रही है निब की पैनी धार
इसके तन बदन पर 
ज़ख्म ये सदियों से सहकर 
बात अपनी कह रही है 

                    - रंजना डीन 



Sunday, April 7, 2013

सोचती हूँ डूब मरुँ गोमती में 
बहुत देख ली जिंदगी
वही सुबह वही शाम 
वही रोज़ के तमाम काम  
फिर सोचती हूँ गोमती ही क्यों?
डूबने के लिए जगहों की कमी है क्या?

क्यों न डूब जाऊं बेटी की मासूम आँखों में 
जन्नत उससे ज्यादा अच्छी और कहा मिलेगी?
क्यों न डूब जाऊं उस हर अधूरे काम को पूरा करने में 
जो न जाने कबसे मन की पिटारी में 
छोटी छोटी चिट्स की तरह इकट्ठा होते रहे आजतक 

या डूब जाऊं वो सारे शौक पूरे करने में 
जो जब तब कुलांचे मारते रहते हैं मन के मैदान में 
कैमरा कंधे पर टांग कर निकल पडू 
अनछुई सी प्रकृति को महसूस करने 
जिनके न जाने कितने संयोजन 
मन ही मन उकेर चुकी हूँ 
लिख डालूं एक काव्य संग्रह 
कोई छोटा सा उपन्यास 
या फिर कुछ पेंटिंग्स 

या फिर डूब जाऊं और डुबा दूँ 
स्नेह के सागर में सलोने सजन को 
फिर पहले से डूबे हुए लोगो को 
कही और डूबने की ज़रूरत कहाँ?

Thursday, March 28, 2013

सलीके कौन रखे याद खुराफातों में 
जिंदगी बीतती हैं चंद मुलाकातों में 
चाँद भी झाँक न पाया था जिसकी खिड़की में 
वो मच्छर रोक न पाया कभी भी रातों में...:)...;)...:D

Sunday, March 24, 2013



















ऐसा रंग बना दे मौला 
इंसा इंसा नेक दिखे 
शैतां सारे डूब मरे 
और दुनिया सारी एक दिखे 

Happy Holi to all....:)

Monday, March 11, 2013





























बचपन

मै खोल कर बैठी हूँ बचपन का पिटारा
जुगनू हैं ढेरों और एक नन्हा सितारा

कुछ फूल हरसिंगार के सूखे पड़े हैं
जो बिन फुलाए रह गया, वो एक गुब्बारा

गुडिया का एक बिस्तर भी था अब याद आया
माचिस पे कपडा बांध कर तकिया बनाया

पापा ने जब मुझको पलंग ला कर दिया न
एक मोटी सी किताब पर गद्दा लगाया

गुडिया के कपड़ों की थी एक गठरी बनायीं
एक घर भी था उसका, हुई उसकी सगाई

माँ जब भी सिलती थी कोई भी फ्रोक मेरी
गुडिया के कपड़ों की मै करती थी सिलाई

मुझको अभी भी याद है की माँ ने मेरी
मेरे लिए मिटटी की एक चिड़िया बनायीं

और लाल पीले रंग से रंग था उसको
और दाल के दाने से थी आंखे बनायीं

एक बार गुस्से में पटक दी थी वो चिड़िया
जब टूट कर दो हो गयी रोई बहुत मै

फिर फेंक कर टूटे हुए टुकड़ों को उसके
रोई थी मै, शायद तभी सोयी बहुत मै

जागी तो देखा भीगते बारिश में टुकड़े
रंगों को अपने छोड़ते थे लाल पीले

ये देख कर उस दिन सुबक सी मै उठी थी
और हो गए थे आँखों के कोरे पनीले

न जाने कितनी और भी यादें है ताज़ा
कितनी कहानी और कितने रानी राजा

दिल बोल पड़ता है अभी भी ऊबने पर
तू हैं कहाँ बचपन? पलट के वापस आ जा

Tuesday, February 19, 2013

वक्त गुज़र जाता है......

पिछले सन्डे घर के पड़ोस में एक बुज़ुर्ग की डेथ हो गयी। 10 साल बाद उनका वो बेटा भी आया जो पिछले 10 सालों से विदेश में था। वो बुज़ुर्ग पहले अक्सर मेरे पास आया करते थे अपने इस विदेश बसे बेटे को इमेल करवाने के लिए। बड़े प्यार से सोच सोच कर बोलते ये भी लिख दो, वो भी लिख दो, उससे बोलना मेरे लिए ब्लड प्रेशर वाली मशीन भेज दे मेरे लिए। मै उनकी आँखों में बेटे से मिलने की तड़प देखती थी एक दिन मैंने उनके बेटे को अपनी और से मेल किया की अप अगर चाहे तो मै वेब कैम पर आपकी बात करवा सकती हूँ पर ईमेल का कोई जवाब नहीं आया, बाबा जी रोज़ पूछते कोई जवाब आया ? और मेरा जवाब होता नहीं आया। पिछले सन्डे बाबा की डेथ हो गयी और अब उनका वो बेटा अब इंडिया आया है। आज अगर बाबा जी होते तो ख़ुशी से फूले न समाते। लेकिन न आज बाबा है, न उनका भावुक मन, न वो तड़प जो बेटे से मिलने के लिए मचल रही थी। है तो फ्रेम में टंगी हुई उनकी फोटो, उस फोटो पर चन्दन की माला। अब वो सब मिलने हैं जिनके मिलने न मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। जिसे फर्क पड़ता वो अब है नहीं। वक्त गुज़र जाता है और वक्त के साथ इन्सान भी......

Saturday, February 2, 2013





















रोज़ समेटती हूँ बिखरी हुई जिंदगी 
सुबह उठते ही बुहार कर
एक जगह इकट्ठा करती हूँ तिनके 
थोडा पानी भी छिड़क देती हूँ 
की नमी से शायद थमी रहे कुछ पल  
पर उफ़ ये बवंडर 
इन्हें हमेशा मेरा आँगन ही क्यों दिखता है 
क्यों घूम फिर कर यही आ जाते हैं 
और दिन भर की थकी मै 
फिर से लग जाती हूँ अपने काम पर 
फिर से वही बिखरना, वही समेटना
पर जबतक सांस है आस भी है 

Saturday, January 26, 2013


















आज़ादी 

संकीर्ण सोच से 
दंगों से - रोष से 
स्वार्थी राजनीती से 
पिछड़ी कुरीति से
कुपोषित बचपन से 
रिश्वत के अजगर से 
झूठ से मक्कारी से 
भूख से लाचारी से 
बे रोशन रातों से 
जहरीली घातॊ से 
गन्दी मानसिकता से 
टूटती एकता से 

                 -रंजना डीन