Saturday, June 23, 2012




आज  बहुत  दिन  बाद  दिखा  आँगन  सूखा
पानी की एक बूँद नहीं और धूप चटख 

चिड़िया जो फुदका करती थी इधर उधर
उसको भी लगता है मौसम गया खटक 

आँगन के पीछे एक पेड़ बड़ा सा है
सर सर करता था, देता था शीतल छांव

साथ छोड़ कर भाग रहे हैं पत्ते अब
लगता है पत्तों के भी निकले हैं पाँव

बहुत बुलाया, खेतों ने आवाजें दी 
सुनकर सारे बीज कोपलें जाग गयी 

दो बूंदे आंसू जैसी टपकाई और
बरखा रानी नखरे कर के भाग गयी

सूरज के तेवर कुछ ज्यादा चढ़े हुए
देर शाम तक दीखते हैं वो खड़े हुए

४ बजे जो भगा करते थे  घर को
सरकारी जन ऑफिस में हैं पड़े हुए

बरखा रानी बहुत हुआ अब बरसो न
तुम भी धरती से मिलने को तरसो न

तुमको पाकर सबकुछ होगा हरा भरा 
प्रेम बाँट कर अपना तुम भी हरसो न

Sunday, June 17, 2012


करवटें बेतरतीब सी



















करवटें बेतरतीब सी
न पलकों को बंद होने दे
न आँखों को खुलने  दें
न नींद को आवाज़ दें
न सपनो को घुलने दें

करवटें बेतरतीब सी
बिस्तर पर सिलवटों को बढाती 
रात की ख़ामोशी को चिढाती
न जाने कैसे भूले बिसरे किस्से सुनाती
हर आहट पर बेचैन कर जाती

करवटें बेतरतीब सी
आज मौका दे रही हैं छत की और निहारने का
कोई पुराना सा गीत गाने का
घडी की टिक  टिक  के साथ ताल मिलाने का
और वो सबकुछ सोचने का जो थकान भरी नींद अक्सर सोचने नहीं देती

करवटें बेतरतीब सी
आज कह रही है
निकल चलो एसी कमरे से बाहर
खुले आसमान के नीचे चांदनी तले बैठते हैं
अपनी परछाइयों से बातें करते हैं
और सोचते हैं की जिंदगी में बहुत कुछ है
कमाने, खाने और जिंदा रहने की चाह के अलावा