Saturday, December 18, 2010

आज फिर बारिश ने धो डाली ज़मीन


आज फिर बारिश ने धो डाली ज़मीन
धुल गयी बादल के आँखों की नमी


स्याह सी परतें थी पलकों पर जमी
जाने कबसे थी बरसने को थमी


सोचती हूँ कुछ तो राहत होगी उसको
आई होगी दर्द में कुछ तो कमी

Friday, December 10, 2010

जिंदगी

मुझे क्या पता जिंदगी कल क्या दिखाएगी
खुशियों की बरसात होगी या आंसुओं की झड़ी लगाएगी

आज को दुरुस्त करने की कोशिशों में लगी हूँ
ये मजबूती ही उस वक़्त साथ निभाएगी

किसको मिलता है सबकुछ इस जहाँ में
और सब मिल गया तो कुछ पाने की चाहत कहा रह जाएगी

थोड़े से अधूरेपन में ही है पूरापन
ये अधूरी चाहतें ही कुछ पाने को उकसाएंगी

Friday, December 3, 2010



रात जाग कर काटी सारी
हर किताब क्यों इतनी भारी

प्रश्न पत्र यूँ हाथ में आया
जैसे कोई बड़ी बीमारी

खुसुर पुसुर, छींक और खांसी
उतरे चेहरे और उबासी

भूल गए सब जाने कैसे
मेहनत की थी अच्छी खासी

जैसे तैसे लिख डाला सब
समय उड़ गया न जाने कब

पता चलेगा बोया कटा
नंबर के फल आयेगे जब

Sunday, November 21, 2010

हिफाज़त



कुछ इस कदर की
उन्होंने हमारी हिफाज़त

न ओस में नहा सके
न अश्कों को बहा सके

न हवा संग डोळ सके
न लबों से कुछ बोल सके

न शाखों पर खिल सके
न मिट्टी में मिल सके

Sunday, November 7, 2010

विजय पर्व



पिघली हुई मोमबत्ती
बुझ चुके दिए में भी
है कुछ बात

क्योंकि बता रहे हैं ये
की कितनी इमानदारी से
इन्होने बितायी पूरी रात

रौशनी बनाये रखने की कोशिश में
रात भर खुद को जलाते रहे
पठाखो की आवाज़ों पर थरथराते रहे
हवा के थपेड़ों को सह कर भी मुस्कुराते रहे

हाँ ये सच है की भगवान राम ने एक बार...
लंका पर विजय पाई थी,
पर ये तो न जाने कबसे जीतते आ रहे है

तो आइये मनाते है इनका विजय पर्व
शुभ दीपावली

Friday, October 22, 2010



दर्द की दीवार पर कैसे लिखे लम्हा कोई
भीड़ में गुमसुम खड़ा है, है बहुत तन्हा कोई

Monday, October 18, 2010

ख़ुशी


मैंने देखे हैं कई बार
पानी के बुलबुलों पर
ठहरे हुए इन्द्रधनुष

पर वो रुकते नहीं होते
हल्की सी थिरकन के साथ
टहलते है उस नन्हे से बुलबुले में

बचपन से बहुत लुभाते हैं मुझे
घंटो निहारा है इन्हें

साबुन का झाग बना कर
बड़े से बड़ा बुलबुला बनाने की कोशिशें
और कोशिशों में कामयाब होने की ख़ुशी

सच है ख़ुशी का कोई मोल नहीं
कभी मुफ्त में खुशियों का ढेर
तो कभी नोटों के ढेर में भी
ख़ुशी नदारत

Monday, October 11, 2010

नन्हा सा घोसला


रोज़ जोडती हूँ तिनके
थक गयी हूँ बिनते बिनते

पर मेरा नन्हा सा घोसला
झेल रहा न जाने कितनी बला

कभी बारिश, कभी तूफ़ान,
कभी गर्मी का उफान

कभी सुलगाता है
कभी डुबो जाता है

कभी पानी पर उतराता है
कभी आहट से थरथराता है

फिर भी पंखो के नीचे समेटे हुए
घोसले और उसके परिंदों को

बचाने की कोशिशों में
काट रही हूँ ये धधकते, कड़कते दिन

क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
इन परिंदों और घोसले के बिन

Saturday, October 9, 2010

ताकि मिठास जिंदा रहे...

रहने दो कुछ अधूरा सा ही सही,
सबकुछ हो पूरा ये ज़रूरी नहीं.
आधा चाँद, आधी याद,
आधा घूंघट, आधी रात
पूरे होते ये सब...
तो नहीं होती इनमे वो बात.
रिश्ते की आधी सी बची...
मिठास को चखो मत,
चखते चखते कभी कभी...
ख़त्म हो जाती है चीज़ें.
बस सोच कर कर लो मुंह मीठा
ताकि मिठास जिंदा रहे...
कभी भी ख़त्म न होने के लिए.

Wednesday, September 29, 2010

फर्क क्या था रब, खुदा या राम में?

आदमी ने फर्क बतलाया न होता गर हमें...
तुम बताओ फर्क क्या था रब, खुदा या राम में?
रो के हमसे आसमान ने कह दी अपने दिल की बात...
अब नहीं रहता कोई रब तीर्थों और धाम में.

Thursday, September 23, 2010

साजिशें

मन उदास है
और गुलाब के पत्तों पर
थमी हुई सुनहरी बूंदे
देख लग रहा है
आसमान भी बहुत रोया है शायद आज

वैसे ही जैसे रो उठती हूँ
मै मन ही मन
जब सारी कोशिशों के बाद भी
जीत जाती हैं साजिशें
और हार जाती है
मेहनत और ईमानदारी

किसने कहा सियासत
सिर्फ सियासी गलियारों में
सफ़ेद पोशों के बीच ही होती है
मैंने देखी है सियासत
हँसते मुस्कुराते चेहरों के पीछे
आपकी कमज़ोर नब्ज़ ढूँढती हुई
निगाहों के बीच

Monday, September 20, 2010

ऐसा नहीं की याद कुछ रहता नहीं




ऐसा नहीं की याद कुछ रहता नहीं
आँखों से कुछ मेरी कभी बहता नहीं
जब खिलखिलाती हूँ भरी महफ़िल में मै
तब दर्द का कुछ बोझ दिल सहता नहीं

Friday, September 17, 2010

दर्द देखा जब तुम्हारा गर्द सा सबकुछ लगा
गुनगुनी सी शाम में भी सर्द सा सबकुछ लगा

Monday, September 13, 2010

मसरूफियत


मसरूफियत कुछ इस कदर हम पर फ़िदा है
अब चैन के लम्हे हुए हमसे जुदा हैं

हम इश्क भी करते हैं यूँ पाकीज़गी से
के हुस्न के तेवर हुए हमसे खफा हैं

हमको नहीं आते बनाने झूठे वादे
लोगो को लगता है की हम तो बेवफा है

चाहे जो सोचो कुछ असर हमपर न होगा
हूँ क्या मै, मेरे रब - खुदा को सब पता है

Sunday, August 29, 2010

आओ....थाम लें फिर से हथेलिया


आओ....
थाम लें फिर से हथेलिया
सारे दोस्त, सारी सहेलियां
लौट पड़े बचपन की और
भूल कर आज की पहेलियाँ

मिट्टी में बनायें कुछ घरौदे
खेले सिकड़ी और छुपा छुपाई
वो खट्टे मीठे चूरन
वो धूप में पड़ी चारपाई

वो मोर्निंग वाक पर जाने के लिए
गेट से कूद कर दोस्त को जगाना
झूठे भूत के किस्से सुना कर
रोब जमाना, सबको डरना

वानर सेना बनाकर
पूरी कालोनी में चक्कर लगाना
दीदी को साईकिल सिखाने में
खुद भी गिरना, उनको भी गिरना

यादें वैसी ही है ताज़ा
जैसी सुबह की ओस
पर बदल गए है वो एहसास
वो जज्बा, वो जोश

अब मन की तस्वीर
स्वार्थ से लेमिनेटेड है
बिना काम के किसी से मिलना
फैशन आउट डेटेड है

Monday, August 23, 2010

बहुएं



कंगन खनकाती

पल्लू संभालती

पायल की रुनझुन से

ताल मिलाती


बटोर लाती हैं

ढेर सारे सपने

पीछे छोड़ आती हैं

सारे अपने


ढूँढती है स्वर्ग

अनजाने से घर में

खोज लेती हैं

ईश्वर अपने वर में

Tuesday, August 17, 2010

सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,


सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,

हसरतों की हदों पर न कब्ज़ा हुआ....


कब ज़मीन पूछती है कहाँ से हो तुम?

जब किसी बूँद ने उसके तन को छुआ।


क्या कभी धूप को खुरदुरे फर्श पर...

कोई पौधा सवालों का बोते सुना?


क्या कभी ओस ने पूछ मज़हब शहर,

वादियों के किसी ख़ास गुल को चुना?


क्या कभी चाँद तारों ने अपनी चमक

बांटते वक़्त सोचा यहाँ या वहां?


फिर क्यों हम बांटते? फिर क्यों हम काटते?
लेके जाएगी ये सोच हमको कहाँ?

Friday, August 13, 2010

जिंदगी तू मुस्कुराये बस यही एक चाह थी



यूँ बदलते देखे मैंने रंग हरपल नित नए
रोते रोते यूँ कोई कैसे लगाये कहकहे


जिंदगी को थामने की अजमाइश की बहुत
पर मेरे अरमान के घर रेत के जैसे ढहे


मेरे होठों की दरारे दिन -ब-दिन गहरी हुई
आँखों से न जाने कितने अश्क के दरिया बहे


जिंदगी तू मुस्कुराये बस यही एक चाह थी
बस इसी चाहत में खुद पर फातिये हमने पढ़े

Saturday, August 7, 2010

अब नयी एक इमारत बनायेगे हम








क्यों सहूँ , क्यों रहूँ दर्दो गम के तले
क्यों रहे यूँ नमी मेरी पलकों तले
क्यों मै सिलती रहू चिंदिया हर घडी
जब पता है, है रिश्ते के धागे गले

क्यों देखू मै ख्वाबों का बिखरा लहू
क्यों डरूं जब कोई चाह दिल में पले
क्यों चुभे मुझको रोशन सा दिन आजकल
क्यों मिलती है राहत अंधेरों तले

क्यों पुकारूँ वही नाम हर हाल में
जिनके कानो में रुई के फाहे पड़े
अब नयी एक इमारत बनायेगे हम
हम क्यों खोदे पुराने वो मुर्दे गड़े


(घरेलू हिंसा की त्रासदी सहती हुई हर नारी को समर्पित)

Saturday, July 17, 2010

ख्वाहिशें और सपने


छोटी छोटी ख्वाहिशें लिख लेती थी
कागज़ की रंग बिरंगी पुर्चियों पर
और लिखते लिखते जमा होता गया
पुर्चियों का खज़ाना

पर आज की बारिश न जाने
क्या कह गयी धीरे से कानो में
और उन पुर्चियों से
नन्ही नन्ही नाव बनाकर
बहा दी मैंने खिलखिलाते पानी में

ये सोच कर की
ख्वाहिशें और सपने
समेट कर रखने से नहीं
आजाद छोड़ देने से पूरे होते हैं

और उन रंग बिरंगी पुर्चियों से
बनी इन्द्रधनुषी नावें
चल पड़ी हैं अपनी अपनी धाराएँ
अपनी अपनी मंजिले तलाशने

आज ख्वाहिशें और सपने आजाद हैं
और लहरों का पानी रंगीन
शायद मिल जाये उन्हें
अपना आसमान, अपनी ज़मीन.




Saturday, July 10, 2010

चुप सी थी वो शुरू से...


चुप सी थी वो शुरू से...
धीरे धीरे उगने लगे शब्द..
उसकी जुबान पर,
और चहचहाना शुरू किया उसने.
और पंखो को फ़ैलाने की कोशिश में...
पार किये उसने छोटे छोटे रास्ते,
ये छोटे छोटे रास्ते तय करते करते...
एक दिन पंहुच गयी वो एक ऊँची से पहाड़ पर.
पर उस पहाड़ पर देखा उसने...
खुद तो सबसे ऊँचा दिखाने के लिए,
लोग दे रहे थे धक्के एक दूसरे को.
वो हैरान सी देखती रही...
खुद को ऊँचा बनाये रखने के इस तरीके को,
और सोचती रही आगे बढूँ या नहीं?
फिर वो धीरे से मुड़ गयी एक नयी राह की और...
और रखनी शुरू की नन्ही ईंटे,
मेहनत की, इमानदारी की, सच्चाई की.
देर से सही, थोडा कम ऊँचा ही सही...
पर अब वो भी है एक पहाड़ की ऊंचाई पर,
लेकिन उसे सुकून है इस बात का...
की जब वो देखती है उस पहाड़ी से नीचे,
तो उसे कोई भी ऐसा नहीं दीखता...
जिसे धक्का देकर हासिल की उसने ये ऊंचाई.
उसे सिर्फ दिखाई देती है उसकी मेहनत
और उस मेहनत की गाढ़ी कमाई.

Tuesday, July 6, 2010

मै हूँ, पास नहीं दूर ही सही!!!


मै महसूस कर रही हूँ
मौसम की नमी
जो उपजी है शायद तुम्हारे आंसुओं से
जब ये बढती है
तो उभर आती है कुछ बूंदे
मन की दीवारों पर
और टपक पड़ती हैं यहाँ वहाँ
मै नहीं आ सकती अब
तुम्हारे आंसू पोछने
क्योंकि एक पेड़ की तरह
बांध लिया है मैंने खुद को
अपनी जड़ों से
लेकिन मेरे पत्तों से छनती हवा
अभी भी चाहती है
सुखाना तुम्हारे आंसुओं को
तभी तो फूँक मार रही है लगातार
तुम्हारी आँखों के नम कोरों पर
और कह रही है मै हूँ
पास नहीं दूर ही सही

Monday, June 14, 2010

बूंदे


लटों में उलझी बूंदे
यूँ लगती है जैसे
काली रात ने
उलझा लिए हैं खुद में
ढेर सारे सितारे,
और वो गिर रहे हैं
टूट टूट कर.
कधों से फिसलती
इधर उधर गुज़रती
गुदगुदी लगाती ये बूंदे,
बताती है पलों का मोल.
दो पल ठहरती हैं
और बिखर जाती हैं,
पर ज़मीन पर
रंगत बिखेर जाती हैं.

Sunday, June 13, 2010

ममता का स्वाद



आग की लपटों के बीच
गुब्बारे की तरह फूलती रोटियां
और उस आंच की तपन से
लाल होता माँ का चेहरा
दोनों ही आग में तपकर निखरे हैं
दोनों ही चूमने लायक है
क्योंकि रोटियों में स्वाद है माँ के प्यार का
और माँ में स्वाद है उसकी ममता का

Tuesday, June 8, 2010

नर्म एहसास तुम्हारी हथेली का



नर्म एहसास तुम्हारी हथेली का
हिस्सा हो जैसे जादू भरी पहेली का
आज है मेरी नन्ही सी बेटी का
कल यही होगा मेरी सबसे प्यारी सहेली का

तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच


तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच
न जाने कितने ऐसे पल आये
जब भीड़ में होते हुए भी
दिखे सिर्फ तुम ही
सुना सिर्फ तुमको

तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच
हमें याद रहा की लंच टाइम हो गया
तुमने खाना खाया होगा या नहीं
खाना तुम्हे पसंद आया होगा या नहीं

तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच
मै दूर होते हुए भी तुम्हारे करीब थी
और दोपहर के खाने के बाद की जम्हाइयां बता रही थी की
तुम्हारी तकिये के आधे हिस्से पर
अभी भी मेरा ही हक है

तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच
वो सुबह की चाय साथ पीने के पल
तुम्हारा रसोईं घर में मेरे आस पास मंडराते रहना
पिछले दिन के ब्योरे का हिसाब किताब
और आज के दिन की जन्म कुंडली
यथावत चलती रही

तुम्हारी और मेरी व्यस्तताओं के बीच
ऑफिस के लिए तैयार होते वक़्त
मुझे मेकअप करते देख तुम्हारा जलन भी
कडवे शब्दों के पीछे छुपे
तुम्हारे अथाह प्यार को छुपा नहीं पाती

Saturday, May 29, 2010

कागज़ को प्यार से सहलाकर


कागज़ को प्यार से सहलाकर
खुशबुओं से नहलाकर
सोचती हूँ लिखू
कोई प्यार भरा गीत

जिसमे तारों भरे आसमान तले
जुगनू टिमटिमाते हो
हवा के झोंके जहाँ बिना किसी
खिड़की, दरवाज़े से टकराए हुए आते हों

जहाँ एक दूसरे के सुख से बढ़कर
कोई चाह न हो
जहाँ अलग कर देने वाली
कोई राह न हो

जहाँ किसी को समझने के लिए
लफ़्ज़ों की नहीं दिल की ज़रूरत हो
जहाँ चेहरे नहीं
नियत खूबसूरत हों

जहाँ लोग क्या कहेगे
कहने वाला कोई न हो
जहाँ मासूमियत ने
अपनी सूरत धोयी न हो

जहाँ शान के लिए
जान बिकती न हो
जहाँ इंसानों में हैवानियत
दिखती न हो

Tuesday, May 25, 2010

स्नेह का दीप जलाते वक़्त
सोचा नहीं होगा उसने
की केवल उन्ही दीपों को
जलने का अधिकार
दिया है इस समाज ने
जो जलते है मंदिरों में,
घर की मुंडेर पर
या मृत्यु पश्चात सिराहने पर.
इसीलिए छुपाती फिरी वो
अपने स्नेह दीप को
लेकिन प्रेम का प्रकाश
कब रुका है रोकने से?
पर उसकी रौशनी अँधेरा कर गयी
उसी के जीवन में जिसने
जलाया था वो दीप
क्योंकि....
समाज भी तो कोई चीज़ है
कैसे मिल जाने देता दो दिलो को
परिवार वाले कैसे मुंह दिखाते समाज को
तो चलो एक हत्या ही सही
रिश्तों की, स्नेह की, सपनो की
एक जान ही तो गयी
आन, मान, शान तो बाकि है
अभिमान तो बाकि है
बेटी तो वैसे भी विदा होती
डोली न सही अर्थी ही सही
तो लो हो गयी बेटी विदा
और आसमान के घूँघट से
झांक कर पूछ रही है
माँ...
जान ज्यादा कीमती होती...
है या अभिमान?

Thursday, May 20, 2010

I have got 5th position check this link http://kavita.hindyugm.com/2010/05/main-toote-bartan-ke-jaisi.html

Saturday, May 15, 2010

उँगलियों और किबोर्ड

थकी हुई आँखों में भरी हुई है नीद
पर कंप्यूटर के किबोर्ड
पर थिरकती उँगलियाँ
अभी भी बांधे हुए है उम्मीद
की शायद यहाँ से भेजे हुए इमेल्स
वहां तक पहुँचकर
कुछ करामात दिखायेंगे
कहीं किस्मत, तो कहीं दिल के
दरवाज़े खटखटाएंगे
और फिर शायद भर जाये
किसी दिल का खाली कोना
या बदल जाये किसी की
बदकिस्मती खुशकिस्मती में
और बढ़ता जाये प्यार
उँगलियों और किबोर्ड में लगातार

Thursday, May 13, 2010

टूटी बिखरी किरचों को मै चिपकाती रहती हूँ
गीत अधूरा या हो पूरा गुनगुनाती रहती हूँ
रंग बिरंगे लम्हे सीकर चादर सी बुन ली है
बेरंगे लम्हों में उसे ओढ़कर सो जाती हूँ

Sunday, May 9, 2010

एरोकेरिया का पेड़

एरोकेरिया का पेड़
मेरे घर के आँगन में खड़ा
आया था नन्हा सा
धीरे धीरे होता जा रहा था बड़ा
रोज़ कड़क धूप सहता
और चुपचाप खड़ा रहता
शाम को जब हम ऑफिस से आते
तो उसे देख कर लगता
जैसे किसी मासूम को
दिनभर धूप में खड़े रहने की
सजा मिली हो
एक दिन पति को उसपर तरस आया
और उन्होंने उसे बरामदे की अन्दर
दिवार की आड़ में जा टिकाया
अब उस पेड़ का पीलापन कम होने लगा
उसका रूखापन धीरे धीरे नम होने लगा
एक दिन बारिश आने पर मैंने सोचा
क्यों न इसे बरामदे से हटा कर
बारिश में भीगने दूँ
बारिश की फुहारों से
उसे खुद को सीचने दूँ
पर जब मैंने उसे खिसकाया
तो उसमे एक अजीब सा फर्क पाया
उस पेड़ की वो टहनियां
जो दिवार की तरफ थी
उतनी ही बढ़ी थी
जितनी जगह थी उनके पास
वो दीवार देख कर रुकने लगी थी
जबकि उसी पेड़ की दूसरी तरफ की टहनियां
लम्बी होकर नीचे को झुकने लगी थी
खुद को हरा रखने के लिए
उस पेड़ ने अपनी टहनियों की लम्बाई से
समझोता कर लिया था
वैसे ही जैसे हम करते है
अक्सर जिंदगी में
सबकुछ जोड़कर रखने के लिए
कुछ चीज़ों को टूट जाने देते हैं

Friday, May 7, 2010

उदास धूप

पीले से पत्तों के नीचे
छुपी हुई है छांव दुबक कर
धूप उदास अकेली उसको
ढून्ढ रही है सुबक सुबक कर
बहुत दिनों से नहीं मिले वो छोर
जहाँ दोनों मिलते थे
आधे ठन्डे, आधे गर्म फर्श पर
कुछ लम्हे खिलते थे
बहुत देर से देख रही थी हवा
धूप के नैना गीले
उड़ा ले गयी एक झोंके में
सारे बिखरे पत्ते पीले
पत्तों की चादर हटते ही
छाँव धूप से मिलने आई
नम आँखे जब धूप की देखी
उसकी आँखे नम हो आयीं

Wednesday, May 5, 2010

तारो की रौशनी में

कभी कभी तनाव से ऊब कर
नींद जब पल्लू छुड़ा कर भागती है
तो मै रोकती नहीं उसका रास्ता
ये सोच कर की शायद
कहीं कोई मखमली सपनो की सेज पर
करता होगा उसका इंतज़ार
और चुपचाप चुनने लगती हूँ
आसमान के सितारे
क्योंकि दिन के उजाले
कई बार आँखों को चौंधिया देते हैं
और साफ़ दिखती हुई चीज़ें भी
रह जाती हैं अनसुनी, अनदेखी
दिन की भीड़ और भीड़ का शोर
अक्सर दबा देता है
कुछ आवाज़ों को
जो कानो तक आकर भी
गुज़र जाती हैं बिना दस्तक दिए
फिर इन नन्हे तारों की
टिमटिमाती रौशनी में
खोजती हूँ उन आवाज़ों को
ढूँढती हूँ उनके जवाब
और तब वो रौशनी और ख़ामोशी
देती है जवाब
हर अनसुनी बात का
और मै हैरान रह जाती हूँ ये देखकर
तारो की रौशनी में
सबकुछ दिखता है कितना साफ़

Tuesday, May 4, 2010

ख़बरें

ख़बरों के चौराहों पर न जाने क्या क्या बिकता है
ये है वो चूल्हा जिस पर हर रोज़ तमाशा सिकता है
घर के झगडे, ढोंगी नेता या हो धर्म के ठेकेदार
जितने मिर्च मसाला उतना ही चलता इनका व्यापार

सपने

चटक, चुलबुले, चमकीले से
हरे गुलाबी और पीले से
रोज़ सजाती हूँ मै सपने
ओस की बूंदों से गीले से
पर...
आग उगलता सच का सूरज
सपनो को पिघला देता है
सब सपनों सा सरल नहीं है
इस सच को दिखला देता है

Saturday, May 1, 2010

अश्कों से धुले लम्हों को पोंछती रहती हूँ
कैसे जियूं ये रिश्ते बस सोचती रहती हूँ
फुरसत में कही कोई गम याद न आ जाये
मसरूफियत में खुशियों को खोजती रहती हूँ
आज कर दी हद जो वो आये नहीं
उनके ये तेवर हमें भाये नहीं
मेरे आंसू देख कर शरमा गए
बादलों ने मेघ बरसाए नहीं

Monday, April 26, 2010

दर्द

दर्द को जब भी दबाऊं तो छलक आता है
जख्म का ये मिजाज़ हमको नहीं भाता है
हम तो रखतें है छुपा कर कई परतों के तले
दाग दिल का न जाने कैसे उभर आता है

मैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
सहा चुप रह के हर एक जख्म, हर एक छाला
खिली दोपहर भी देती है अँधेरे मुझको
दिखता है चाँद भी कभी कभी मुझको काला

Sunday, April 25, 2010

वो लम्हें चूम कर हौले से छुपा रखें हैं
की किसी की बुरी नज़र कहीं न पड़ जाये
वो यूँ ही झांके शरारत से मेरी आँखों में
और हम देखकर उनको शर्म से गड़ जाये


ऑफिस के
वातानुकूलित कमरे में बैठ कर
खिडकियों के काले शीशों के बाहर
दिखाई देते लोग
पेड़, मकान, सड़क, मौसम
दिखते है कितने सुन्दर
लेकिन बिजली के चले जाने के
कुछ पलों बाद ही
महसूस होने लगती है
दूर से दिखाई देती
सुन्दरता का सच
पसीने से भीगते शरीर
तपती हुई छतें
पिघलती सड़कें
झुलसते पेड़
उबलता मौसम...
सच है जब तक
खुद को चोट न लगे
दर्द महसूस नहीं होता

Wednesday, April 21, 2010

बड़े तूफ़ान देखे हैं

बड़े तूफ़ान देखे हैं
अभी तक मैंने राहों में
कही लालच, कही छल
और कहीं नफरत निगाहों में

ख़ुशी की ओर जब भी
मैंने अपनी बांह फैलाई
सिमट आई न जाने
सिसकियाँ कितनी पनाहों में

वो जो ऊँगली उठाते रहते हैं
गैरों पे अक्सर ही
उन्ही के हाथ देखे हैं
सने मैंने गुनाहों में

की अब तो साँस लेने से भी
डर लगने लगा मुझको
सुना है ज़हर का गुब्बार
फैला है हवाओं में

जो तुमको दूर जाना है
चले जाओ जहाँ चाहो
तुम्हे मै ढून्ढ ही लूंगी
मेरे अश्कों में आहों में

मैंने देखा है मेरे सब्र को
तुम आजमाते हो
कभी मिल जाये न आंधी
तुम्हे ठंडी हवाओं में

न जाने इश्क क्यों इतना है तुमसे
कुछ भी हो जाये
मगर उठता है हर पल हाथ
बस तेरी दुआओं में

Thursday, April 15, 2010

आँख की खिड़की जो खोलो मन का फाटक कर दो बंद

तुमने देखा बस वही
जो आँखों के आगे दिखा
काश देखा होता तुमने
मन के पीछे क्या छुपा
स्नेह में डूबे हुए मीठे से पल
हमने जो सींचा था वो भीगा सा कल
दर्द का और प्यार का हर एक लम्हा
बन गया था गीत और मीठी ग़ज़ल
पर तुम्हे क्या तुम वही देखो
जो तुमको है पसंद
आँख की खिड़की जो खोलो
मन का फाटक कर दो बंद
मै भी करके बंद
सारी खिड़कियाँ, सब रौशनी
आंसुओ की स्याही से
लिख डालूं कुछ भावुक से छंद

Tuesday, April 13, 2010

सही वक़्त पर सही प्रतिक्रिया

मैंने देखा
घर से काफी दूर
बहुत तेज़ चमक के साथ
मिट्टी में कुछ झिलमिलता सा
पर बादल के टुकड़े
जैसे ही सूरज को ढकते
सब शांत हो जाता
और फिर बादल के हटते ही
फिर वही ज़ोरदार चमक
जैसे सूरज का कोई टुकड़ा
टूट कर गिर गया हो ज़मीन में
मुझसे रहा ही नहीं गया
सोचा जाकर देखूं
इस सूरज के छोटे टुकड़े को करीब से
पास जाकर देखा
एक चमकीली सी कागज़ की पन्नी
हवा के थपेड़ों से फडफडा रही थी
और उसपर पड़ती धूप की किरने
उसकी चमक को दसगुना बढा रही थी
किसी ने सही कहा है
सही वक़्त पर सही प्रतिक्रिया
किसी को कहा से कहाँ पहुंचा देती है

Saturday, April 10, 2010

चेहरे

थक गयी हूँ देखती हूँ रोज़
कुछ झूठे से चेहरे
लाख कोशिश करके भी दिखतें हैं
वो रूठे से चेहरे
चापलूसी का जिसे है ज्ञान
उस चेहरे की कीमत
जिसको बस है काम से ही काम
वो टूटे से चेहरे

Friday, April 9, 2010

हर एक बुत के आगे झुकाते रहे सर
वो दर हो हमारा, या किसी और का दर
शहर कोई भी हो, किसी का भी हो घर
क्या जाने खुदा मिल ही जाये कहीं पर

Friday, April 2, 2010

सुनते है वो रिश्ता अब टूटने वाला है!!!

फूल को मिटटी में डाल देने से...
क्या वो पनप उठता है अपने आप?
गीली लकड़ी ने...
क्या आग पकड़ी है कभी?
बारिश की बूंदों में भीगने का मज़ा...
क्या छत के नीचे खड़े होकर लिया जा सकता है?
बिना बंधन के रुकी है कोई रस्सी...
किसी सिरे से किसी सिरे तक?
तब क्यों रिश्ते की आंच को सुलगने से पहले ही...
कह दिया इसमें गर्माहट नहीं?
क्यों फूलों को पनपने से पहले कह दिया...
इसमें नर्माहट नहीं?
क्यों रिश्तों को तोडना...
जुड़े रहने से ज्यादा आसान है?
क्यों न झुकने की प्रवृत्ति पर...
इतना अभिमान है?
क्यों सात जन्मो के रिश्ते...
साथ माह में ही बासी होने लगते हैं?
क्यों सपनो को जीते हुए...
हम सच्चाइयों को खोने लगते हैं?
कभी सच की गहराई में गोते लगाओ...
खुद को उसकी जगह रखकर हर बात पर गौर फरमाओ,
रिश्तों का बनना बिगड़ना किसी एक के हाथ में नहीं...
अपने हिस्से की गलतियों को सोचो तब फैसला सुनाओ.

Friday, March 26, 2010

दोस्त था मेरा सबसे प्यारा

उसकी छांव बड़ी अपनी थी
स्नेहिल माँ की गोद के जैसी.
कितनी कवितायेँ जन्मी थी
जब जब उसकी छांव में बैठी.
नयी कोपलें जब भी टूटी
बड़े प्यार से पाली मैंने
सहलाकर , दुलराकर उनको
पन्नो बीच सजा ली मैंने
जब भी हवा चूमती उसको
शरमा कर झुक जाता आगे
जब भी खेली छुआ छुआई
उसके आगे पीछे भागे
दादी की झुर्री जैसी थी
उसकी छाल खुरदुरेपन में
सर पर छाँव किये रहता था
माँ जैसे ही अपनेपन से
काट दिए एक दिन आरी ने
स्नेह भरे वो सारे बंधन
आँगन में अब नहीं कोपलें
धूळ भरे चलते है अंधड़
हवा ढूँढती फिरती अब भी
कहा गया वो प्रियतम प्यारा
पेड़ कहा करते सब उसको
दोस्त था मेरा सबसे प्यारा

Monday, March 15, 2010

ममता की ममता

उसका नाम ममता
मासूम सी सूरत
एक सामाजिक संस्था से जुडी
वो करती है सामाजिक सुधार की बातें
खाती है अक्सर बहुत सी कसमें
करती है बहुत से वादे

तारे ज़मीन पर फिल्म देख कर वो बहुत रोई
बताया उसने वो पूरी रात न सोयी
लेकिन गरीब रिक्शे वालों से वो
एक दो रुपयों के लिए बहुत बहस करती है
और कहती है की वो गरीबों के हक के लिए बहुत लडती है

दोस्ती उन्ही से करती है
जिनके एकाउंट में पैसा है
इससे कोई फरक नहीं पड़ता
की वो इन्सान कैसा है

बच्चों की मासूमियत नहीं
उनका स्टेटस देख कर उन्हें गोद में उठाती है
जिसमे होती है रईसी की महक
बस उन्हें देख कर मुस्कुराती है

ठण्ड से थरथराती शाम में
जब एक मेहमान का बच्चा उसकी रजाई में सिमट आया
क्या मुझे अपने रूम में भी Privacy नहीं
उसे ये कह कर भगाया

आज वो बनी है माँ
सोच रही हूँ क्या उससे मिलने जाऊं
शायद उस ममता में...
अब सचमुच मुझे कही ममता दिख जाये
जिंदगी राहों में कैसे मोड़ देती है?
हिम्मतों की हर इमारत तोड़ देती है,
अपने हो जाते हैं पल भर में पराये से...
गैरों से गहरे से रिश्ते जोड़ देती है.

आसमान कुछ है उदास सा

आसमान कुछ है उदास सा
कुछ चुप चुप सी आज चांदनी
हर्फ़ बहुत धुंधले से दिखते
सुर खो बैठी आज रागिनी

कोई बैठा है गुमसुम सा
रूठा है कुछ है उदास सा
दूर बहुत है पहुँच से मेरी
फिर भी लगता बहुत पास सा

घुटनों पर अपना सर रखकर
बैठा होगा कही अकेला
बाहर होगी भरी दुपहरी
मन के अन्दर घोर अँधेरा

इस उलझन को सुलझाने में
मै खुद कही उलझ न जाऊ
सोच रही हूँ विदा बोल दूँ
या कैसे भी उसे मनाऊ?

Saturday, March 13, 2010

आज है छुट्टी

आज है छुट्टी, मन करता है बिस्तर में ही पड़े रहो
हो रिमोट टीवी का साथ में, एक जगह पर गड़े रहो
कोई बढ़िया डिश खाने की, लाकर कोई सर्व करे
छुट्टी बीते यूँ सुकून से, उस छुट्टी पर गर्व करें
अलसाये से पड़े रहे, कभी इस करवट कभी उस करवट
आँखे बंद, खोल कर बैठे कल्पनाओं के सारे पट
बाकि सारे दिन हफ्ते के घडी की सुइयों साथ बंधे
हम बुनते जीवन का स्वेटर इसकी सिलाइयों में गुंधे
चलो उधेड़े कुछ फंदों को, धागों को लहराने दे
क्यों हर पल को नियम कायदे, खुशियों को फहराने दे

Wednesday, February 24, 2010

बड़े दिनों से न जाने
कितना कुछ मन में छुपा हुआ था
था कोई तूफ़ान
न जाने कैसे अबतक रुका हुआ था


एक बहुत मज़बूत इमारत
धीरे धीरे दरक रही थी
आज मोम बन पिघल रही थी
मन में जो भी कसक रही थी


गहराई की सारी सीमा
भरते भरते आज भरी थी
मै जितनी मासूम थी दिल से
दुनिया उतनी सख्त कड़ी थी


सब कुछ सहा अकेले मैंने
दर्द भरे दिन - दुःख की रातें
फिर भी लोग चला करते हैं
कितनी साजिश, गहरी घातें


रो लेती हूँ सबसे छुप कर
लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
पन्ने हो जाते हैं गीले
बोझ दर्द का थोडा सा कम

दुःख

मन चिटका और बह निकला दुःख
सात समुन्दर पार कहीं
आशाएं भी टूटी बिखरी
आँखे भी भरपूर बही
क्यों मन भारी, क्यों मैं हारी
प्रश्न न जाने कितने है
चहरे के पीछे चेहरे हैं
सब नकली है जितने हैं
बढती जाती मन की पीड़ा
गहरे होते जाते घाव
सच हर रोज अपाहिज होता
झूठ के लम्बे होते पाँव

Thursday, February 18, 2010

कुछ पल बैठो साथ हमारे

कुछ पल बैठो साथ हमारे...
कुछ बोलो मुह खोलो तो,
हर्फों को तो समझ लिया है...
जज्बे को भी तौलो तो.

दुनिया भर में घूम रहे हो...
फैला करके कितने राग,
कुछ पल को तो चैन से बैठो...
कुछ पल मेरे हो लो तो.

तीखे, कडुवे, खट्टे, खारे...
बहुत जायके दुनिया में,
आओ कह दो हौले से कुछ...
कुछ मीठा सा बोलो तो.

झूठी हंसी से थके हुए से...
दिखती है ये लब तेरे,
रख लो मेरी गोद में सर को...
हंस न पाओ रो लो तो.

Friday, February 12, 2010

धड़कने जब धडकनों से बोलती है

धड़कने जब धडकनों से बोलती है...
जाने कितने राज़ दिल के खोलती है,
थाम लेती हैं हथेली दूर से ही...
बाँहों में बाहें फसा कर डोलती हैं.
कितने भी कड़वे हो लम्हे जिंदगी के...
तल्खियों में चाशनी सी घोलती हैं,
बेपनाह चाहतों की बारिशों को...
जब बहाती है कभी न तोलती है.

Friday, January 29, 2010

सूख गयी बारिश की बूंदे ...
आँख मेरी क्यों अबतक नम है ,
हंसी मेरी ढकती है घूँघट ...
जब चेहरा दिखलाता ग़म है .
ऐसा नहीं मेरे है ज्यादा ...
और बाकी सबके ग़म कम हैं ,
हाँ हम हंसकर जी लेते हैं ...
मान लिया हममे ये दम है .

Thursday, January 28, 2010

गजलों के मौसम

गजलों के मौसम हमने भी देखे है
ख्वाब गुलाबी से हमने भी देखे हैं
पर मौसम तो मौसम है बदलेगा ही
सावन और पतझड़ हमने भी देखे हैं

जब ठंडी ठंडी सी लगती थी गर्मी
जब चुभ जाती थी फूलों की भी नरमी
चाँद झांक खिड़की से करता बेशर्मी
वो रेशम से दिन हमने भी देखे हैं

जब पाया क्या खोया क्या दिखता न था
जब एक नाम ख्यालों से मिटता न था
उड़ते थे हम पैर कही टिकता न था
वो खुशबु से दिन हमने भी देखे हैं.

Tuesday, January 26, 2010

शहीद

अंग्रेजों को भगाने का कारण
क्या देश को आजाद कराना था?
या उनके हाथ से देश छीन कर...
दो टुकड़ों में बाँट कर खाना था?
दो टुकड़ों को बाँट कर नेता बना दिया,
शहीदों को देश का विजेता बना दिया.
जो बचे जीवित उन्हें मेडल थमा दिए
जिंदगी की गाड़ी चलाने के लिए
कुछ रुपयों के पैडल थमा दिए.
और वो रूपये भी इतने कम की ज़िन्दगी क्या...
मौत का बोझ भी नहीं उठा पाएंगे,
जितने में दो रोटियां जुटाना मुश्किल था...
उतने में वो कफ़न कहा से लायेंगे?

मैंने देखा है...

मैंने देखा है...
नाकाबिल लोगो को आगे बढ़ते हुए,
कभी रिश्तों तो कभी...
रिश्वत की सीढियां चढ़ते हुए.
यूँ आगे बढ़ते हुए...
न जाने वो कितनी को गिराते हैं,
किसी की प्रतिभा...
तो किसी का ईमान चुराते है.
इस छोटे से लाभ के पीछे की...
हानि कोई नहीं देखता
प्यास बुझ जाने के बाद...
पानी कोई नहीं देखता.
दुनिया बदल देने की ताकत रखने वाले...
घरों में बेरोजगार बैठे हैं,
बिना सींग वाले जानवर...
ऊँचे ओहदों पर ऐठे हैं.

आज़ादी का जशन मनाओ...

आज़ादी का जशन मनाओ...
पर क्या ये आज़ादी है?
साधन घटते जाते है,
बढती केवल आबादी है.

योजनाओ के नाम पे कितने...
सरकारी धन लूट रहे;
जिनको सख्त जरुरत है,
वो लम्हा लम्हा टूट रहे.

कमर तोड़ स्कूली खर्चे...
कोई कैसे पाए पार,
क्या अमीर ही होगा शिक्षित?
और गरीब सदा लाचार?

ऊँचे पद उनकी मुट्ठी में...
जिनके पास सिफारिश है,
मध्य वर्ग के हाथों में बस...
संघर्षों की बारिश है.

सरकारी ताने बाने में...
खटमल दीमक जैसे लोग,
जनता के हिस्से के हक का,
रोज़ लगते हैं ये भोग.

बहुत हो गया बदलो यारों...
अब रुकने का वक़्त नहीं,
कुछ भी नहीं बदल सकता,
गर आज का युवा सख्त नहीं.

Saturday, January 23, 2010

कदम-दर-कदम हम बढे जब भी आगे...
चिटकते गए बीती यादों के धागे,
समय ने न जाने कहा ला धकेला...
बहुत कुछ नहीं था जो हम सो के जागे.

पुरानी सड़क पर बहुत दूर भागे...
निकलते गए और लोगो से आगे...
मगर गौर से जब निगाहें गड़ाई..
नए से थे चेहरे, नए थे लबादे.

गुंधे एक दूजे में ख्वाहिश के धागे...
है कुछ ख्वाब जिंदा तो कुछ थे अभागे...
हमें बस खरे लोगों की ही है ख्वाहिश ..
हमें पाक लोगो की दौलत खुदा दे.

Sunday, January 17, 2010

कोहरे से भरा सवेरा है

कोहरे से भरा सवेरा है
हर शय पर धुंध का डेरा है
हर पत्ती सहमी सिमटी है
और ख़ामोशी का पहरा है

सांसो से धुआं निकलता है
अलाव सुबह से जलता है
गर्मी की चाहत लिए हुए
हर जिस्म ठण्ड से गलता है

सूरज तो ऐसा छुपा हुआ
न उगता है न ढलता है
सड़कों पर सोते लोगों में
एक घर का सपना पलता है

Wednesday, January 13, 2010

मै

मै पलभर की चकाचौध सी....
आसमान की कड़क कौंध सी,
बारिश की बूंदों संग बहती...
चुप चुप रह कर सबकुछ कहती.
कभी किताबों में उलझी सी...
कभी भ्रमित, कभी सुलझी सी.
कभी चटक चुलबुली खनक सी...
कभी शहद और कभी नमक सी.
ओस में भीगी हरियाली सी,
कभी भरी, कभी ख़ाली सी.
कभी उछ्ल कर चाँद पकडती...
मस्त, मगन और मतवाली सी.
कभी जूझती कंप्यूटर पर...
व्यस्त, घमंडी अधिकारी सी.
कभी डालती सिर पर पल्लू ,
भोली, सुघड़, सरल नारी सी.
मेरी कुछ बातें क्यों अक्सर....
कुछ की कुछ हो जाती है?
कहती हूँ कुछ और...
समझ में लोगो के कुछ आती हैं.

नहीं रंग रोगन से....
रंगना आता मुझको बातों को..
हो जाता नाराज़ कोई तो...
नींद न आती रातों को.

सोच रही हूँ अब बातों को...
न बोलूं न खोलूंगी,
फिर कोई नाराज़ न होगा...
मै सुकून से सो लूगी.

Sunday, January 10, 2010

दुनिया की गडित मेरे पल्ले नहीं पड़ती...

दुनिया की गडित मेरे पल्ले नहीं पड़ती,
मै फायदा देख कर आगे नहीं बढती.
मुझे नहीं पसंद गोरे चेहरे और काले दिल वालों की चमचागिरी,
मुझे तो लगती है भली हर वो बात जो है सोने सी खरी.
मुझे कपड़ों और गहनों से ज्यादा लम्हों की खूबसूरती भाती है,
मुझे पसंद है वो खुशबु जो मंदिर में धूप जलाने से आती है.
बातों को बढ़ा चढ़ा कर बोलना मुझे नहीं आता,
मै नहीं खोल सकती बात बात पर झूठ का खाता.
मेरे मंदिर में अल्ला, राम, खुदा सालों से साथ साथ रहते हैं,
फिर लोग क्यों ज़मीन बाटो, देश बाटो कहते है?
मुझे कभी नहीं लुभा पाता कीमती कपड़ों में दमकता रूप,
मुझे भाती है खुले दिमाग की गुनगुनी धूप.
मै कोई संत नहीं जिसमे मोह नहीं माया नहीं,
लेकिन मै जो हूँ वो हूँ, खुद को छुपाना मुझे आया नहीं।

मै अक्सर देखती हूँ छोटे छोटे फायदों के लिए पलते षड्यंत्र,
कब सीखेगे लोग जीवन जीने का असली मन्त्र?

टूट कर गिरना एकदिन
है ये तारों को पता
ये तो बस किस्मत है उनकी
है नहीं उनको खता
झिलमिलाना काम है
सो झिलमिलातें है सदा
आसमां को, बादलों को
प्यार देते है जता
काश हम भी सीख
उनसे कुछ ऐसी अदा
भूलकर सारे अँधेरे
देते दुनिया जगमगा

Saturday, January 9, 2010

आपके जाने के बाद

आपके जाने के बाद
ऐसे कितने लम्हे आये
जब लगा काश आप साथ होते
शायद आप ख़ुशी से नाच उठते
फक्र से सर उठाते
और सबको ख़ुशी का राज़ बताते

आपके जाने के बाद
कितनी रातें आपकी यादें
और मेरे आंसू संग बहे
और जिंदगी छुप गयी न जाने किस कोने में
की ढूँढने पर भी नहीं मिलती

आपके जाने के बाद
लगा छत छीन ली किसी ने
सबसे कीमती चीज़ चुरा ले गया कोई
और बदले में दे गया
ढेर सरे आंसुओ की सौगात

आपके जाने के बाद
मुझे एहसास हुआ
आपसे ज्यादा प्यार मुझे किसी ने नहीं किया
मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कोई नहीं था
क्योंकि मुझे आपका साथ मिला था

आपके जाने के बाद
जब आपको ज़मीन पर लिटाया गया
तब मै आपका बाया हाथ पकड़ कर
पूरे वक़्त बैठी रही
की शायद आप पहले की तरह कहो
रंजू जरा हाथ पकड़ कर बैठा दो

आपके जाने के बाद
मै सोच रही हूँ
आपका खून मेरी रगों में दौड़ रहा है
आपका प्यार मेरे ज़हन में बसा है
मेरा शरीर आपकी देन है
मेरी आँखों में आपका चेहरा है
फिर आप क्यों नहीं हो

पापा आपके बिना
आपकी ये बेटी अकेली रह गयी
इतने सालो से मैंने किसी को पापा नहीं कहा
आज पता चलता है की पापा शब्द कितना प्यारा है.

आपके जाने के बाद
एक दिन मै उस हस्पताल में गयी
जहाँ कभी आपका इलाज हुआ था
उस वार्ड के उस बेड तक गयी
जहा आप लेते या बैठे मिलते थे

और सोचती रही
काश आप यूँ ही मिलते बैठे हुए
और मै जल्दी से आपका हाथ पकड़कर
आपको घर ले आती

Wednesday, January 6, 2010

न जाने क्यों

न जाने क्यों
हर वो चीज मुझे अपनी सी लगती है
जिसमे बनावट नहीं

न जाने क्यों
हर वो सोच खुदा सी लगती है
जिसमे गिरावट नहीं

न जाने क्यों
हर भोली औरत में
मुझे माँ नजर आती है

न जाने क्यों
मासूम बच्चो की
भोली आँखों पर नज़र ठहर जाती है

न जाने क्यों
हर बुजुर्ग में
पापा की झलक मिलती है

न जाने क्यों
हर मिट्टी में मुझे
एक सी महक मिलती है

न जाने क्यों
हर अच्छा इंसान
जाना पहचाना लगता है

न जाने क्यों
हर बनावती रिश्ता
बेगाना लगता है

न जाने क्यों
मै किसी की आँख से अश्क बनकर
टपकना नहीं चाहती

न जाने क्यों
मै दुनिया की चकाचौंध में
बदलना नहीं चाहती

संस्मरण

रात्रि : २:३०, दिनाक : १८/०५/९५
आज मै अपनी लिखी एक कविता खोज रही थी, जिसे एक पन्ने पर लिखकर मैंने न जाने कहा रख दिया था. तभी अचानक ढूँढ़ते ढूँढ़ते मेरे हाथ एक किताब लगी जो कम से कम ४० वर्ष पुरानी थी और उसे मेरे नाना जी पढ़ा करते थे. मै उस किताब को खोल कर उसके पन्ने पलटने लगी की तभी अचानक उसमे एक एक कागज़ का टुकड़ा निकला, वो किसी डाक्टर का लिखा पर्चा था जिस पर शम्भू देवी लिखा हुआ था, शम्भू देवी मेरी स्वर्गीय नानी जी का नाम है. उस पर तारिख भी पड़ी हुई थी १४/१२/६५, मेरे जनम के ११ वर्ष पहले की. न जाने क्यों मन भावुक हो उठा. मै सोचने लगी इस किताब को नाना जी ने किनी बार छुआ होगा, इसके अधिकांश पन्नो पर उनके हाथों का स्पर्श अंकित हुआ होगा, उनकी अनुभवी आँखों ने कितनी बार इसके शब्दों को निहारा होगा? ये सोच कर बड़े स्नेह के साथ मै उस किताब को सहलाने लगी मानो वो स्पर्श उन कागजों का नहीं वरन नाना जी के हाथों का हो. नानी के नाम लिखे पर्चे को हाथ में लेकर मै सोचने लगी आज नाना और नानी जी दोनों ही इस दुनिया में नहीं, लकिन उनका स्पर्श, उनकी यादें, उनकी बातें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अब भी जीवित हैं. आज मै उन्हें याद कर रही हूँ जो अब नहीं हैं, एक समय ऐसा भी आयेगा जब मै नहीं होउगी. बचेगी कुछ डायरियां, पुराने एल्बम, कुछ मीठी कुछ कडुई यादें , थोडा सा स्नेह जो अनजाने में इधर उधर बंट गया होगा. जीवन की परिभाषा जो जनम से मृत्यु तक की परिधि में कैद है. इसकी जानकारी सभी को है. इससे बड़ा सच कोई नहीं. फिर भी इसका अंतिम पड़ाव आँखों को आंसू और ह्रदय को पीड़ा क्यों दे जाता है?

Tuesday, January 5, 2010

ठिठुरता दिन

कडकती ठण्ड में...
थरथराती सांसे लिए...
ठण्ड से बचने के लिए...
खुद को खुद में छुपाने की कोशिश करती हुई,
आना ही पड़ा ऑफिस।

काश कुछ छुट्टियाँ और मिल जाती...
और थोडा वक़्त और बिता लेती घर पर.
परिवार के साथ रजाई में बैठकर...
गर्म चाय की चुस्कियां लेते हुए...
छुट्टियाँ बिताने से अच्छा क्या हो सकता है।

लेकिन हाय ये प्राइवेट नौकरी,
जान जाये पर काम न जाये।

आज एक सहकर्मी बोला...
कोई आज बहुत प्रशंशा कर रहा था हमारे विभाग की,
लेकिन निदेशक कुछ नहीं बोले...
मै मुस्कुरा कर बोली...
समझदार बोस वही होता है,
जो पेड़ पर उगते फल नहीं गिनता...
लेकिन हर टूटते पत्ते का हिसाब रखता है।

सभी सहकर्मी मुस्कुरा दिए...
फिर लग गए सब अपने अपने काम में,
ऑफिस की वही डिप डिप चाय की चुस्कियां लेते हुए।

सहसा देखा एक सहकर्मी ने...
सबके लिए कही से अदरक वाली चाय मंगाई,
सब के सब खुश हो उठे...
वाह बहुत बढ़िया किया ये.
मै बोली ऐसा लगा रहा है जैसे किसी ने...
कुछ गरीब लोगो को कम्बल बाँट दिए हो...
ठण्ड से बचने के लिए।

और ज़ोरदार ठहाकों के साथ...
फिर से ऑफिस में...
एक ठिठुरता दिन ख़तम.

Sunday, January 3, 2010

कितनी उलझन और बवाल

कितनी उलझन और बवाल
एक ख़तम तो नया सवाल.
नए साल पर मांग उधारी
मचा रहे है लोग धमाल

महगाई की झेलो मार
मचा हुआ है हाहाकार.
जेब हुई जाती है हल्की
और खर्चे है अपरम्पार

इंसानों का लगा बाज़ार
रिश्तों में चलता व्यापार
घटिया से नोवेल के सारे
लगते है घटिया किरदार .

टूटी चप्पल जोड़ रहे
नाते रिश्ते तोड़ रहे
अपने दुःख की नहीं खबर
गैर के सुख पे आँख धरे

पैसों की मारा मारी
इसे भरा तो वो खाली
फूल पौध से काम चले न
नोट उगाओ ओ माली

Friday, January 1, 2010

मै कवि, मै कलाकार...

मै कवि, मै कलाकार...
सपनो की दुनिया से गहरा सरोकार.
जब असली दुनिया से भर जाता दिल
सज जाती है सपनो की महफ़िल.
चाँद से होती है गुफ्तगू..
बादलों पर बैठ कर हो जाती हूँ उड़न छु
हवा के संग हिलते हुए फूलों पर डोलती हूँ ...
नर्म हरे पत्तों की चुनरिया ओढती हूँ...
ओस की मोतियों के जब पहनती हूँ जेवर,
किसी राजकुमारी से कम नहीं होते तब मेरे तेवर.
चाँद से तो मेरा है बरसों का याराना ...
मेरे हर राज़ का है उसके पास खज़ाना .
घास पर टूटी पड़ी पत्तियों के नीचे
मै अक्सर अपनी आँखों को मीचे
करती हूँ गुनगुनी धुप में आराम
पूछना कभी उनको याद है अभी भी मेरा नाम
आसमान पर बैठ कर देखती हूँ पूरी दुनिया
वो बूढी सी दादी, वो नन्ही सी मुनिया
वो छोटा मोनू जिसके लिए हर वो चीज़ लड्डू है जो गोल है
वो संजू किसके लिए प्यार सबसे अनमोल है.
मेरे लिए उतना है आसान आसमान के तारें तोडना...
जितना ज़मीन पर बैठ कर अपनी टूटी चप्पल जोड़ना.
ये सपनो की दुनिया देती है तनाव से आराम..
और आसान हो जाते है कुछ मुश्किल से काम.